गाजियाबाद में रहने वाली एक 40 वर्षीय महिला की कहानी सोशल मीडिया और मानसिक स्वास्थ्य मंचों पर चर्चा का विषय बन गई है। वह एक सरकारी बैंक में कार्यरत हैं और पिछले दो दशकों से अपने पूरे परिवार की आर्थिक ज़िम्मेदारी अकेले निभा रही हैं। लेकिन अब वह खुद को भावनात्मक रूप से टूटी हुई और मानसिक थकान से जूझती हुई महसूस कर रही हैं। उनका कहना है कि “घर में किसी को मुझसे प्यार नहीं है, उन्हें बस मेरी सरकारी नौकरी से लगाव है।” यह कहानी महज़ एक महिला की नहीं, बल्कि उन हजारों भारतीय महिलाओं की प्रतिनिधि है जो भावनात्मक शोषण और पारिवारिक दवाब में जी रही हैं।
पिता की मौत के बाद उठाया परिवार का बोझ
इस महिला के जीवन में मोड़ उस वक्त आया जब वह मात्र 20 साल की थीं और उनके पिता का देहांत हो गया। बड़े बेटे की गैरमौजूदगी और छोटे भाई की अपरिपक्वता के चलते घर की सारी ज़िम्मेदारी उनके कंधों पर आ गई। उन्होंने बैंक में नौकरी शुरू की, परिवार को संभाला, मां की देखभाल की और भाई की पढ़ाई-लिखाई से लेकर शादी तक के सारे खर्च उठाए। लेकिन जब बात उनके अपने जीवन की आई—जैसे उनकी शादी या निजी ख़ुशी—तो वह हमेशा दरकिनार कर दी गईं।
“मेरे परिवार को सिर्फ मेरी तनख्वाह से लगाव है”
अपने अनुभव साझा करते हुए उन्होंने बताया, “मेरी मां और भाई-भाभी को बस मेरी तनख्वाह से मतलब है। भाई की नौकरी स्थाई नहीं है, वह इधर-उधर के काम करता है। बच्चे की पढ़ाई से लेकर उसके खिलौनों तक की ज़िम्मेदारी भी मेरी है। जब मैं वीकेंड पर दोस्तों के साथ घूमने का प्लान बनाती हूं, तो मां नाराज़ हो जाती हैं। उन्हें लगता है कि बेटी का बाहर घूमना ग़लत है। मेरा ऑफिस जाना, मेरा थक जाना, मेरी तबीयत—इन सबका किसी को फर्क नहीं पड़ता।”
भावनात्मक शोषण की पहचान
यूके स्थित मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञ डॉ. द्रोण शर्मा ने इस मामले का विश्लेषण करते हुए इसे ‘टॉक्सिक फैमिली डायनामिक’ यानी विषैले पारिवारिक संबंधों की श्रेणी में रखा। उनका कहना है, “यह महिला एक को-डिपेंडेंसी पैटर्न में फंस गई हैं, जहां वह दूसरों की जरूरतों को अपने से ऊपर रखती हैं। परिवार का आर्थिक और भावनात्मक बोझ अकेले उठाना उन्हें धीरे-धीरे बर्नआउट, डिप्रेशन और एंग्जायटी की ओर ले जा रहा है। यह गंभीर मनोवैज्ञानिक स्थिति है।”
लगातार बढ़ती थकावट और आत्महत्या के विचार
इस महिला ने बताया कि उन्हें अब हर वक़्त थकान और निराशा घेरे रहती है। कई बार जीवन समाप्त करने का ख्याल भी आता है। उनके अनुसार, “रोज़ ऑफिस से आकर घर के कामों में लग जाना, फिर मां के तानों को सुनना और भाई-भाभी की अपेक्षाओं को झेलना… अब बर्दाश्त से बाहर है। लगता है जैसे मैं रोबोट बन चुकी हूं—जो बस चलती जाती है, बिना रुके, बिना थके—लेकिन अंदर से टूट चुकी है।”
क्या ‘सेल्फ केयर’ को स्वार्थ समझना सही है?
भारतीय समाज में विशेषकर महिलाओं को यह सिखाया जाता है कि दूसरों की सेवा और परिवार की देखभाल ही उनका धर्म है। लेकिन क्या अपनी जरूरतों का ख्याल रखना स्वार्थ है? डॉ. शर्मा कहते हैं, “बिलकुल नहीं। खुद के लिए खड़ा होना, अपनी भावनाओं को पहचानना और मानसिक शांति को प्राथमिकता देना आत्मरक्षा है, स्वार्थ नहीं।”
सेल्फ एसेसमेंट टेस्ट: क्या आपको प्रोफेशनल मदद की जरूरत है?
इस महिला और ऐसी कई महिलाओं की मानसिक स्थिति को समझने के लिए डॉ. शर्मा ने एक सेल्फ एसेसमेंट टेस्ट तैयार किया है, जो 10 सवालों पर आधारित है। इसमें व्यक्ति को यह जानने में मदद मिलती है कि वह किस मानसिक स्थिति में है—क्या हल्की भावनात्मक परेशानी है, या गंभीर डिप्रेशन और बर्नआउट से जूझ रहे हैं।
टेस्ट के स्कोर के अनुसार:
0-10: आप भावनात्मक रूप से स्वस्थ हैं
10-20: सीमित खतरे के संकेत हैं
20-30: सेल्फ हेल्प और थोड़ी मदद की ज़रूरत है
30-40: प्रोफेशनल हेल्प लेना जरूरी है
खुद को प्राथमिकता देना: क्यों जरूरी है?
विशेषज्ञों के अनुसार, अगर आप अपने बारे में नहीं सोचेंगे, तो धीरे-धीरे शारीरिक और मानसिक रूप से टूटते जाएंगे। महिला को सलाह दी गई है कि वह निम्नलिखित पहलुओं पर ध्यान दें:
- रेगुलर एक्सरसाइज करें
- स्वस्थ भोजन करें
- पूरी नींद लें
- शौक और रुचियों में समय बिताएं
- मेडिटेशन और माइंडफुलनेस करें
- भावनाओं को व्यक्त करें—डायरी लिखें
- सपोर्ट ग्रुप से जुड़ें
परिवार के साथ सीमाएं तय करना ज़रूरी
इस महिला की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह एक ऐसे परिवार में रहती हैं, जहां भावनात्मक शोषण को सामान्य समझा जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि उन्हें अब सीमाएं (Boundaries) तय करनी होंगी:
आर्थिक सीमा: साफ कहें कि अब मैं भाई के पूरे परिवार का खर्च नहीं उठा सकती।
समय सीमा: अपने पर्सनल समय की इज्जत करें। जब मना करना हो, तो शालीनता से मना करें।
भावनात्मक सीमा: जब कोई व्यक्ति आपको दोषी महसूस कराए या आपकी बातों को नकारे, तो उस बातचीत से दूर हो जाएं।
संवाद में बदलाव: “तुम” नहीं, “मैं” का इस्तेमाल
जब आप बातचीत करें, तो “तुमने ऐसा किया” की बजाय “मुझे ऐसा महसूस होता है” जैसे वाक्यों का इस्तेमाल करें। इससे बात का असर सकारात्मक होता है और बहस की संभावना कम हो जाती है।
मानसिक आज़ादी की ओर पहला कदम
महिला को सलाह दी गई है कि वह धीरे-धीरे उन सभी चीज़ों को अस्वीकार करना शुरू करें जो उन्हें कंट्रोल करने की कोशिश करती हैं। उदाहरण के लिए, यदि मां उन्हें दोस्तों के साथ वैकेशन पर जाने से रोकती हैं, तो उन्हें यह दृढ़ता से कहना चाहिए “मैं आपकी चिंता समझती हूं, लेकिन यह मेरी जिंदगी है और मुझे इसकी ज़रूरत है।”
आर्थिक आज़ादी और भविष्य की तैयारी
उन्हें सलाह दी गई है कि वे अपनी फाइनेंशियल प्लानिंग करें, सेविंग्स पर ध्यान दें और इस बात पर भी विचार करें कि उन्हें अकेले रहना है या जीवनसाथी चाहिए। यदि विवाह करना चाहती हैं, तो उस दिशा में पहला कदम उठाएं। यह जीवन उन्हीं का है, और इसकी दिशा तय करने का अधिकार भी उन्हीं का।